राजस्थान कांग्रेस के भीतर नेतृत्व की लड़ाई! अब नए मोड़ पर आई सियासत
राजस्थान कांग्रेस के भीतर नेतृत्व की लड़ाई अब नए मोड़ पर आ चुकी है। प्रदेश की राजनीति में दशकों तक अपने करिश्मे का सिक्का जमाए रखने वाले अशोक गहलोत की पकड़ धीरे-धीरे ढीली पड़ती दिखाई दे रही है। यह बदलाव सचिन पायलट के उदय से और अधिक स्पष्ट हो रहा है, जो अब राष्ट्रीय राजनीति में भी एक अहम चेहरा बनते जा रहे हैं। अशोक गहलोत, जो राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और कांग्रेस संगठन पर उनकी मजबूत पकड़ रही है, अब बीमारी और उम्र के कारण सक्रिय राजनीति में उतनी मजबूती से नहीं दिखाई दे रहे। उनकी सियासी सक्रियता में कमी ने उनके समर्थकों में असमंजस की स्थिति पैदा कर दी है। हाल के लोकसभा चुनावों में अपने बेटे वैभव गहलोत को जिताने में असफलता, उनकी राजनीतिक स्थिति को और कमजोर कर गई। वहीं, सचिन पायलट की स्थिति एकदम उलट है। उन्हें जम्मू-कश्मीर चुनावों के लिए स्टार प्रचारक बनाकर कांग्रेस हाईकमान ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि पायलट के पास एक राष्ट्रीय आकर्षण है, जो शायद गहलोत के पास नहीं। इससे प्रदेश में पायलट के समर्थकों के हौंसले बुलंद हैं। सचिन पायलट, जिन्हें कभी गहलोत खेमे द्वारा "नकारा" और "निकम्मा" माना जाता था, आज कांग्रेस पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण चेहरा बनते जा रहे हैं।
पायलट की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है, और पार्टी हाईकमान ने उनके प्रति अपना भरोसा दिखाया है। हाल ही में, पायलट को हरियाणा और जम्मू-कश्मीर जैसे महत्वपूर्ण चुनावी राज्यों में स्टार प्रचारक की भूमिका दी गई है, जबकि अशोक गहलोत को इन राज्यों में कोई विशेष जिम्मेदारी नहीं दी गई है। यह साफ दर्शाता है कि गहलोत की राष्ट्रीय छवि का अब कांग्रेस के भीतर उतना महत्व नहीं रह गया है। गहलोत के धुर विरोधी माने जाने वाले मदरेणा परिवार की दिव्या मदरेणा को राष्ट्रीय कांग्रेस का पदाधिकारी बनाना भी इस ओर संकेत करता है कि गहलोत की हाईकमान के सामने पकड़ कमजोर हो चुकी है। राजस्थान में आगामी छह उपचुनाव पायलट के लिए एक बड़ा अवसर साबित हो सकते हैं। माना जा रहा है कि कांग्रेस के उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया में पायलट की अहम भूमिका होगी, और अगर उनकी टीम इन चुनावों में जीत दर्ज करती है, तो पायलट का कद और बढ़ जाएगा। राज्य में कांग्रेस की राजनीति अब गहलोत और पायलट के बीच एक नई शक्ति-संतुलन की मांग कर रही है। गहलोत के समर्थक, जैसे कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा, उपचुनावों तक तो अपने पद पर बने रह सकते हैं, लेकिन उसके बाद पार्टी हाईकमान उनकी भूमिका पर पुनर्विचार कर सकती है। कांग्रेस के भीतर, सचिन पायलट के अच्छे दिन शुरू हो चुके हैं। वे धीरे-धीरे गहलोत को पीछे छोड़ते दिखाई दे रहे हैं, और अगर उनकी यह उछाल जारी रहती है, तो वे राजस्थान कांग्रेस का चेहरा बन सकते हैं।
अब देखना यह होगा कि क्या कांग्रेस हाईकमान गहलोत और पायलट के बीच शक्ति संतुलन बनाए रख पाता है या नहीं। जो भी हो, सच्चाई यह है कि सचिन पायलट के लिए पार्टी का समर्थन और जनाधार दोनों ही तेजी से बढ़ रहे हैं। इस पूरे घटनाक्रम में यह साफ है कि राजस्थान कांग्रेस की राजनीति में आने वाले दिन बहुत दिलचस्प होंगे। क्या गहलोत फिर से बाज़ी पलटने में कामयाब होंगे, या सचिन पायलट ही नए सियासी नायक बनकर उभरेंगे? यही वह सवाल है जो अब हर किसी की जुबान पर है।