चुनावी चंदे पर सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला

चुनावी चंदे पर सुप्रीम कोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला

देश में इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे पर चर्चा जारी है. जिसमें विपक्ष चंदे पर सख्त रूप से उतारू है. सुप्रीम कोर्ट ने भी पारदर्शिता के मामले पर जोर दिया है और इस योजना को रद्द कर दिया है. सरकार का दावा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड पॉलिसी की वजह से ही चंदे की सही जानकारी मिल पा रही है. इसके साथ ही पहली बार देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पहली बार चुनावी चंदे पर प्रतिक्रिया दी है. पीएम मोदी ने कहा, "2014 से पहले जब चुनाव हुए तो कौन सी एजेंसी बता सकती है कि पैसा कहां से आया और कहां गया? हम चुनावी बॉन्ड लेकर आए, इसलिए आज आप बता पा रहे हैं कि किसने किसको कितना दिया और कैसे दिया, वरना यह पता ही नहीं चल पाता।"चुनावी चंदे को लेकर पहले भी विवाद रहा है. आंकड़े बताते हैं कि जो पार्टी सत्ता में रही है, उसे सबसे ज्यादा चुनावी चंदा मिला है. जब इलेक्टोरल बॉन्ड नहीं थे, तब भी सत्ता पक्ष ही चंदे पाने के मामले में सबसे आगे रहता था या फिर जिस दल की सत्ता में आने की संभावना सबसे ज्यादा होती थी, उस पर कॉर्पोरेट घराने सबसे ज्यादा मेहरबान होते थे. हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में भी याचिकाकर्ता ने यह तर्क दिया है. जबकि सरकार का कहना है कि पारदर्शिता लाने के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड लेकर आए थे. ताकि कोई भी पार्टी अपने आय और व्यय को साफ रखे और चुनाव आयोग को जानकारी देने के लिए बाध्य हो.

बात करे 1962 की तो उस समय देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू थे. उस वक्त ना तो जनसंघ की ठीक से कोई राजनीतिक जमीन बन पाई थी और ना ही पार्टी के पैसा और दूसरी व्यवस्थाएं-संसाधन थे. तब अटल बिहारी वाजपेयी नौजवान नेता थे. वक्ता इतने प्रखर थे कि जब वे भाषण देते थे तो हर कोई इस नौजवान पर फिदा हो जाता था. 1962 में लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी पंडित दीनदयाल उपाध्याय वाजपेयी का इस्तेमाल संसद में करना चाहते थे, इसलिए उन्हें यूपी से राज्यसभा भेजा गया. वाजपेयी 3 अप्रैल 1962 को राज्यसभा के लिए चुने गए. उन्हें वहां जनसंघ के संसदीय दल का नेता भी चुना गया. विजय त्रिवेदी अपनी किताब 'हार नहीं मानूंगा' में लिखते हैं, चूंकि 60 के दशक में जनसंघ बहुत बड़ी पार्टी नहीं बन पाई थी और उसे पैसे की कमी से जूझना पड़ रहा था, क्योंकि ज्यादातर उद्योगपति सिर्फ सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को ही चंदा देते थे. तब वाजपेयी अगस्त 1962 में राज्यसभा में एक प्राइवेट मेंबर बिल लेकर आए. इस बिल में कंपनीज एक्ट, 1956 के तहत बदलाव (संशोधन) का सुझाव रखा गया था. बिल में कहा गया था कि कंपनियों को राजनीतिक दलों को चंदे देने पर रोक लगानी चाहिए. क्योंकि कंपनियों को अपने शेयर होल्डर्स का पैसा राजनीतिक दलों को चंदे के तौर पर देने का नैतिक अधिकार नहीं है. क्योंकि शेयरधारक कंपनी के विचारों से सहमत नहीं हो सकते हैं.