क्या जनता की पुकार सुनेंगे नेता? कोटा की महिला की गुहार पर पुलिस तंत्र कटघरे में!
क्या हमारी आवाज़ें प्रशासन और सरकार तक सही मायने में पहुँच पाती हैं? कोटा की एक महिला ने अपनी व्यथा से इस सवाल को उजागर कर दिया है। दो साल से न्याय के लिए दर-दर भटक रही इस महिला की कहानी ने मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा तक को झकझोर दिया। क्या इस बार पुलिस और प्रशासन पर उठे सवालों का जवाब मिलेगा? या फिर यह मामला भी अनसुना रह जाएगा? आइए, जानते हैं कोटा के सर्किट हाउस में हुई जनसुनवाई की पूरी कहानी।
मुख्यमंत्री की जनसुनवाई: जनता की व्यथा पर मंथन:-
कोटा के सर्किट हाउस में मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा की जनसुनवाई का माहौल हमेशा की तरह व्यस्त था। जनता की भीड़ अपनी समस्याओं को लेकर उत्सुक और बेचैन दिखी। लेकिन इस बार सबकी नज़रें उस महिला पर टिक गईं, जो अपने दो साल के बच्चे को गोद में लिए मुख्यमंत्री के सामने गिड़गिड़ा रही थी।
महिला ने अपनी पीड़ा बयां करते हुए कहा:-
पिछले दो साल से मैं पुलिस थाने के चक्कर काट रही हूँ। मेरी एफआईआर दर्ज नहीं हो रही। एसपी से मिलने के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। यह केवल एक महिला की व्यक्तिगत समस्या नहीं थी। यह घटना राजस्थान की पुलिस और प्रशासनिक तंत्र की कार्यशैली पर बड़ा सवाल उठाती है। मुख्यमंत्री ने इस शिकायत को गंभीरता से लेते हुए कोटा सिटी एसपी डॉ. अमृता दुहन को बुलाया और निर्देश दिया कि महिला की समस्या का तुरंत समाधान किया जाए।
पुलिस कार्यशैली पर सवाल: क्यों होती है ढिलाई?
राजस्थान में पुलिस सुधारों का मुद्दा हमेशा चर्चा में रहा है। लेकिन एफआईआर दर्ज न करने और धीमी प्रक्रिया की शिकायतें आए दिन सुनने को मिलती हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि पुलिस की इस कार्यशैली का सबसे बड़ा खामियाजा आम जनता को उठाना पड़ता है। शिकायतों को अनदेखा करना और पीड़ितों को परेशान करना एक ऐसी समस्या बन गई है, जो प्रशासन के प्रति जनता के विश्वास को कम कर रही है।
महिला के मामले ने कुछ अहम सवाल खड़े किए हैं:-
क्या पुलिस की प्राथमिकता केवल रसूखदारों की सेवा करना है?
क्या एफआईआर दर्ज करना भी एक विशेषाधिकार बन गया है?
जनता की समस्याओं के प्रति प्रशासन की संवेदनशीलता कहाँ गायब हो रही है?
जनसुनवाई में उठी अन्य समस्याएँ: ठेका श्रमिक और कर्मचारी आंदोलन।
महिला की पीड़ा के साथ ही जनसुनवाई में अन्य मुद्दे भी उठे। ठेका श्रमिकों ने मुख्यमंत्री के सामने अपनी माँगें रखीं। उनकी प्रमुख माँग ठेका प्रथा को खत्म कर कर्मचारियों को नियमित करना था। इसके अलावा, विभिन्न कर्मचारी संगठनों ने अपने ज्ञापन सौंपते हुए वेतन, स्थायी नियुक्तियों, और अन्य प्रशासनिक अनियमितताओं पर ध्यान आकर्षित किया। मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे इन शिकायतों का तुरंत समाधान करें।
क्या मिलेगा महिला को न्याय? प्रशासन की परीक्षा:-
महिला की शिकायत पर मुख्यमंत्री ने त्वरित कार्रवाई का आदेश दिया। सिटी एसपी डॉ. अमृता दुहन को बुलाकर निर्देश दिए गए कि महिला से मिलकर उसकी समस्या का हल निकाला जाए। यह देखना दिलचस्प होगा कि यह मामला क्या सच में महिला को न्याय दिला पाएगा, या फिर यह भी अन्य मामलों की तरह अनसुना रह जाएगा।
जैसा कि कवि कहते हैं:-
"न्याय वो चिराग है, जो हर दिल का सहारा बनता है।
लेकिन अगर वो न जले, तो अंधकार सारा बनता है।"
राजनीतिक टिप्पणी: प्रशासन पर भरोसा कितना?
यह घटना केवल पुलिस तंत्र की विफलता की ओर इशारा नहीं करती, बल्कि प्रशासनिक सुधारों के दावों की हकीकत भी सामने लाती है। राजस्थान सरकार ने हाल के वर्षों में पुलिस सुधारों का वादा किया है। लेकिन कोटा की यह घटना बताती है कि इन सुधारों को जमीनी स्तर पर लागू करना अभी भी एक चुनौती बना हुआ है।
विश्लेषकों का मानना है कि:
त्वरित कार्रवाई केवल अस्थायी समाधान हो सकता है।
पुलिस और प्रशासन को जनता की समस्याओं के प्रति अधिक संवेदनशील होना होगा।
यह घटना राजस्थान की राजनीति में एक बड़ा मुद्दा बन सकती है, जहाँ विपक्ष इसे सरकार की नाकामी के रूप में प्रस्तुत कर सकता है।
आशा की किरण: मुख्यमंत्री का हस्तक्षेप:-
मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा का तुरंत कार्रवाई का आदेश देना इस घटना का सकारात्मक पक्ष है। यह कदम उन हजारों नागरिकों के लिए उम्मीद की किरण है, जो न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सरकार का यह प्रयास जनता के प्रति उनकी जवाबदेही को दर्शाता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सुधार स्थायी होगा, या यह केवल एक दिखावा बनकर रह जाएगा?
लोकतंत्र की ताकत: जनता की आवाज़:-
कोटा की महिला की गुहार ने हमें यह याद दिलाया है कि लोकतंत्र की असली ताकत जनता की आवाज़ में है। यह घटना हर नागरिक को अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए प्रेरित करती है।
जैसा कि कवि ने कहा है:
"जनता की पुकार है, न्याय का आधार है।
सुनिए दिल से इनकी बात, यही है लोकतंत्र का असली साथ।"
सरकार और प्रशासन को यह समझना होगा कि उनकी असली जिम्मेदारी जनता की सेवा करना है। जब तक इस जिम्मेदारी को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा, तब तक कोटा जैसे मामलों की पुनरावृत्ति होती रहेगी।
क्या बदलाव संभव है?
यह लेख केवल एक महिला की व्यथा नहीं, बल्कि पूरे प्रशासनिक तंत्र की कार्यशैली पर सवाल खड़ा करता है। अगर मुख्यमंत्री के निर्देशों के बाद भी न्याय नहीं मिलता, तो यह लोकतंत्र पर एक और धब्बा होगा। लेकिन अगर इस बार महिला को न्याय मिलता है, तो यह राजस्थान प्रशासन के लिए एक मिसाल बन सकता है। अब यह देखना बाकी है कि सरकार और पुलिस तंत्र इस परीक्षा में खरा उतरते हैं या नहीं।
पवन कुमार शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार